सोमवार, फ़रवरी 13, 2012

त्रिपुरा कृषि योजना सफल हुई

कृषि करमन पुरस्‍कार के रूप में मिली त्रिपुरा के योगदान को मान्‍यता
विशेष लेख                                                                          शुभाषीष के चंदा*
सभी तस्वीरें त्रिपुरा के कृषि विभाग से साभार 
कुमुद बिहारी त्रिपुरा के पर्वतीय क्षेत्र में परांपरागत ढंग से झूम खेती करने वाले एक किसान हैं। वह इस साल बहुत खुश हैं क्‍योंकि फसलों की पैदावार दुगुनी हुई है। ऐसा ही एक और रिकार्ड मोहम्‍मद अब्‍दुल गफ्फार ने बनाया है जिन्‍होंने धान की खेती का एसआरआई तरीका अपनाया और अपने खेतों में पहले की 2.3 टन प्रति हेक्‍टेयर की जगह 3.3 टन उपज प्राप्‍त की। यह प्रेरणादायक उदाहरण है जबकि इस समय देश में खेती का परिदृश्‍य इसके उलट है। यह उदाहरण त्रिपुरा कृषि विभाग द्वारा शुरू की गई उस व्‍यापक योजना का नतीजा है जिसके लिए कृषि करमन पुरस्‍कार प्रदान किया गया है। यह खेती की समग्र ऊंची पैदावार के लिए दिया गया है। पुरस्‍कार प्रदान करते हुए केंद्रीय कृषि मंत्रालय ने देश में अनाज उत्‍पादन बढ़ाने में राज्‍य के योगदान को मान्‍यता दी।

     सुनने में भले ही यह चमत्‍कार जान पड़े लेकिन ऐसा क्‍यों हो पाया इसका जवाब राज्‍य की दस वर्ष की अवधि वाली उस कृषि योजना में छिपा है जिसे केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित दो कार्यक्रमों से मजबूती मिली है। इन परियोजनाओं के नाम हैं राष्‍ट्रीय कृषि विकास योजना और कृषि प्रशिक्षण एवं प्रबंधन एजेंसी।

राज्‍य में कृषि परिदृश्‍य

     त्रिपुरा में भू-भाग 6 पहाडि़यों का मिला जुला रूप है। इस राज्‍य में मैदानी जमीन कम है और पहाड़ी इलाका ज्‍यादा। एक अनुमान के अनुसार राज्‍य में जो विभिन्‍न प्रकार की जमीनें उपलब्‍ध हैं, उनमें से 4000 वर्ग किलोमीटर पर्वतीय क्षेत्र हैं। 2300 वर्ग किलोमीटर की जमीन टीला यानि पहाडि़यों से बनी है, जबकि घाटी का इलाका 2249 वर्ग किलोमीटर और मैदानी इलाका 2042 वर्ग किलोमीटर है। यहां के अधिकांश किसान गुजारा करने वाले हैं और उनमें से लगभग 96 प्रतिशत किसानों की जोतें 0.5 से 1.25 हेक्‍टेयर रकबे वाली हैं। इन किसानों के बीच फसलों और पैदावार पर निवेश बहुत कम किया जाता है। राज्‍य का बुआई वाला इलाका कुल भू-भाग अर्थात 10,49,169 हेक्‍टेयर का 24 प्रतिशत है जबकि राष्‍ट्रीय आंकडे 43 प्रतिशत हैं।

     राज्‍य में इस समय मुख्‍य रूप से दो प्रकार की फसल व्‍यवस्‍थाएं प्रचलित हैं। पहली है स्थिर खेती जो मैदानी भागों में की जाती है और दूसरा तरीका है चलायमान खेती जो पहाड़ी इलाकों में प्रचलित है। अधिकांश किसान इन्‍हीं दो में से एक तरीका अपनाते है। जहां तक आधुनिक टैक्‍नोलॉजी इस्‍तेमाल करने का सवाल है वे पुराना तरीका पसंद करते हैं जिसके परिणामस्‍वरूप फसलों की उपज बहुत कम होती है। जहां तक खेती के पुराने तरीके का संबंध है, किसानों को उपलब्‍ध जमीन कम होती जा रही है। इसके साथ ही, भारत बंगलादेश सीमा पर कंटीले तार लगाए जाने के कारण भी खेती वाली जमीन का रकबा 27 हजार एकड कम हो गया है। पहाड़ी जमीन कटने से मिट्टी का धीरे-धीरे क्षय होता है जो मैदानी इलाके में काफी ज्‍यादा है। यह सचमुच ही खतरे का कारण बन रहा है। एक सरकारी अनुमान के अनुसार हर साल बहुत ऊंची जमीन से लगभग तीस लाख टन ऊपरी मिट्टी कटकर बह जाती है।

पुराने तरीके का सशक्तीकरण 
     उक्‍त बातों को देखते हुए शुरू-शुरू में यहां की चुनौतियां मुश्किल जान पड़ती है। राज्‍य कृषि विभाग को अनाज उत्‍पादन के मामले में आत्‍मनिर्भर बनने की सोचना बड़ी चुनौती हो सकती है। राज्‍य कृषि विभाग ने एक बड़ा कृषि कार्यक्रम शुरू किया है जिसके अनुसार दस वर्षों में 1,16,867 हेक्‍टेयर जमीन के लिए सिंचाई सुविधाएं बढ़ाई जाएंगी। 1999-2000 की स्थिति के अनुसार सिर्फ 51 हजार हेक्‍टेयर के लिए सिंचाई सुविधाएं मौजूद थीं। इसी तरह से फसल सघनता वर्तमान 169 प्रतिशत से बढ़ाकर 283 प्रतिशत करने के लिए कई तरह की कोशिशें शुरू की गई हैं। चलायमान खेती के सुधरे तरीके शुरू किए गए हैं ताकि धान की उत्‍पादकता वर्तमान 600 किलोग्राम प्रति हेक्‍टेयर (1999-2000) से बढ़ाया जा सके। इसके अलावा अधिक उपज देने वाली किस्‍मों के धान की खेती शुरू करने से पैदावार कम से कम 3500 किलोग्राम प्रति हेक्‍टेयर करने की कोशिशें शुरू की गई हैं। इसके लिए समन्वित कीट प्रबंधन, पौधों को पोषक तत्‍व देने वाले तत्‍वों की खपत बढ़ाना और अजैविक खाद के साथ बॉयो फर्टिलाइजर का इस्‍तेमाल शुरू करने को उच्‍च प्राथमिकता दी जा रही है।

भावी योजना और नया दृष्टिकोण

     हर तरह की मुश्किलों के बावजूद खेती ही आर्थिक रूप से यहां के लोगों के गुजारे के लिए एकमात्र विकल्‍प जान पड़ती है। यह राज्‍य दो प्रकार के भू-भागों से बना है। पहला है- घाटी का इलाका और दूसरा- पहाड़ी क्षेत्र जहां संचार सुविधाएं और उद्योग धंधे लगभग मौजूद नहीं हैं।

     राज्‍य कृषि विभाग ने मुश्किलों का सामना करने के लिए यहां विस्‍तार सेवाएं बढ़ाने, टैक्‍नोलॉजी मुहिम शुरू करने और किसानों को प्रशिक्षण स्‍कूलों तक पहुंचाने, धान की ज्‍यादा उपज देने वाली किस्‍मों की खेती शुरू करने, बॉयो-उर्वरकों का इस्‍तेमाल, जैविक खाद और कृषि आधारित उपकरणों का प्रयोग शुरू करने और किसान क्रेडिट कार्ड स्‍कीम के जरिये लोगों को ऋण सुविधाएं दिलाने की शुरूआत की है। ऐसे समय जब इस राज्‍य के लोगों की 27 हजार एकड़ जमीन सीमा पर कटीले तार लगाने के चलते परती पड़ी रही, राज्‍य सरकार ने वर्ष 2011 में दो लाख टन अधिक अनाज की उपज देखी जिसका कारण कृषि विभाग की चल रही कोशिशें बताया गया। वर्ष 2000 में दस वर्षों के लिए एक योजना तैयार की गई जिसके चलते अनाज उत्‍पादन में बहुत कामयाबी मिली और वर्ष 2010-11 में अनाज उत्‍पादन बढ़कर 7.12 लाख टन हो गया। 1999-2000 में सिर्फ 5.13 लाख टन अनाज की पैदावार हुई थी। लेकिन राज्‍य में वर्ष 2010-11 तक अनाज की लक्षित जरूरत 8.22 लाख टन आकलित की गई है जिसकी तुलना में कमी 1.10 लाख टन रहेगी। इस बीच सिंचाई सुविधाएं भी बढ़ाई गई हैं और अब 1,16,867 हेक्‍टेयर जमीन के लिए सिंचाई सुविधाएं जुटा दी गई हैं। फसल सघनता जहां 1999-2000 में 172 प्रतिशत थी वहीं दस वर्षों में यह बढ़कर 184 प्रतिशत हो गई है। रोचक बात यह है कि पहाड़ी किसानों को जहां झूम वाली जमीन से सिर्फ 600 किलोग्राम प्रति हेक्‍टेयर की उपज मिली वहीं अब यह हर सीजन दुगुनी फसलें ले सकते हैं। इसके लिए उन्‍हें बॉयो-फर्टिलाइजर और जैविक खाद इस्‍तेमाल करनी पड़ती है।

आरकेवीवाई, एटीएमए एवं भागीदारी संप्रेषण 

राज्‍य ने 2007-08 में राष्‍ट्रीय कृषि विकास योजना शुरू की गई थी। इसके चलते इस क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश बढ़ गया है। राज्‍य सरकार इस योजना को अनाज उत्‍पादन के क्षेत्र में आत्‍मनिर्भर बनने के उद्देश्‍य से एक वरदान मानती है। राज्‍य ने इस प्रोग्राम के पहले चरण के अंतर्गत 41 परियोजनाएं शुरू की है जिनका बुनियादी तौर पर उद्देश्‍य है अनाज का उत्‍पादन और उत्‍पादकता बढ़ाना। इस कार्यक्रम के अंतर्गत कई प्रमुख योजनाएं शुरू की गई हैं जिनमें एसआरआई तकनीक के जरिये धान की पैदावार बढ़ाना, मिट्टी की शत-प्रतिशत जांच, उन्‍नत किस्‍म के धान की खेती, संकर मक्के की खेती, रेह वाली मिट्टी को ठीकठाक करना, छोटी सिंचाई सुविधाएं, मशीनी खेती, प्रमाणित सब्जियों के बीज उपजाना, ट्रू आलू बीजों को प्रोत्‍साहन देना और आलू की खेती को बढ़ावा देना शामिल है। अभी तक इन सभी परियोजनाओं में राष्‍ट्रीय कृषि विकास योजना पर सबसे ज्‍यादा यानि 177 करोड़ रुपये का निवेश हुआ है।

किसानों को अधिक उपज देने वाली किस्‍मों को अपनाने के लिए प्रेरित करने, रोगों के कारण फसलों में नुकसान बचाने, मिटृटी की उत्‍पादकता बढ़ाने और कृषि प्रशिक्षण एवं प्रबंधन एजेंसी (एटीएमए) के जरिए किसानों को परंपरागत और खेती की नई जानकारी देने को सभी जिलों में महत्‍व दिया गया है। इसके लिए विस्‍तार सेवा का एक व्‍यापक तरीका निकाला गया है और एटीएमए ने विशेषज्ञों की तरफ से खेती के लिए एक प्रभावी, दुतरफा संप्रेषण मॉडल विकसित किया है। इसके जरिए पशुपालन, मछलीपालन और वानिकी के बारे में जानकारी दी जाती है। दूसरी ओर किसानों के लिए प्रशिक्षण और प्रदर्शन कार्यक्रम तथा खेतों में ग्रुप बैठकों जैसे कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। इसी मॉडल के अनुरूप कृषि विभाग ने चालू वित्‍त वर्ष के दौरान एक और कार्यक्रम शुरू किया है जिसे टैक्‍नोलॉजी एक्‍सटेंशन केंपेन कहते हैं। इसमें एक ही छत के नीचे पौधे की रक्षा, जैविक और जैव उर्वरकों का इस्‍तेमाल, मिट्टी परीक्षण प्रयोगशाला और कार्यशाला रखे गए हैं। यह कार्यक्रम पिछले साल नवम्‍बर-दिसम्‍बर से पहले शुरू किया गया जिसके अंतर्गत किसानों को राज्‍य से बाहर ले जाकर ऐसी खेती दिखाई गई। इस प्रकार की हर यात्रा को केंद्रीय कृषि मंत्रालय ने प्रायोजित किया। 
ऐसी ही एक यात्रा के दौरान एक प्रतिभागी श्री हरेन्‍द्र नाथ खुश नजर आए। उनका कहना था कि इस यात्रा से उन्‍हें बहुत फायदा हुआ है। उन्‍होंने उन कीड़ों को पहचान लिया है जिनसे खेती को फायदा होता है। यात्रा के दौरान उन्‍होंने नये औजार और गहाई मशीने भी देखीं। एक अन्‍य किसान श्री आनंद देबबर्मन ने कहा कि ऐसे कार्यक्रम जारी रहने चाहिए। राज्‍य कृषि विभाग के अधिकारियों ने कहा कि किसानों के लिए ऐसी यात्रा का कार्यक्रम अगले वर्षों भी जारी रखा जायेगा ताकि वह आधुनिक टैक्‍नोलॉजी और जानकारी प्राप्‍त कर सकें। इससे खेती की उत्‍पादकता और किसानों की आमदनी बढ़ेगी, उनकी सोच बदलेगी और वे खेती को व्‍यापार समझकर संभालेंगे। {
पीआईबी}  10-फरवरी-2012 17:17 IST

लेखक-पीआईबी अगरतला में मीडिया एंड कम्‍युनिकेशन ऑफिसर हैं

बैंकों का बैंक रिज़र्व बैंक : झलक इतिहास की

भारतीय रिज़र्व बैंक:एक लम्‍बी और कठिन यात्रा
रिजर्व बैंक की गौरव गाथा पर एक विशेष लेख                                      समीर पुष्‍प*
भारतीय रिज़र्व बैंक एक ही दिन में देश भर के बैंकों का बैंक नहीं बना है। क्रमिक विकास, एकीकरण, नीतिगत बदलावों और सुधारों की एक लम्‍बी और कठिन यात्रा रही है, जिसने भारतीय रिज़र्व बैंक को एक अलग संस्‍थान के रूप में पहचान दी है। रिज़र्व बैंक की स्‍थापना के लिए सबसे पहले जनवरी, 1927 में एक विधेयक पेश किया गया और सात वर्ष बाद मार्च, 1934 में यह अधिनियम मूर्त रूप ले सका। विकासशील देशों के सबसे पुराने केन्‍द्रीय बैंकों में से रिज़र्व बैंक एक है। इसकी निर्माण यात्रा काफी घटनापूर्ण रही है। केन्‍द्रीय बैंक की कार्य प्रणाली अपनाने की इसकी कोशिश न तो काफी गहरी और न ही चौतरफा रही है। द्वितीय विश्‍व युद्ध छिड़ जाने की स्थिति में अपनी स्‍थापना के पहले ही दशक में रिज़र्व बैंक के कंधों पर विनिमय नियंत्रण सहित कई विशेष उत्तरदायित्व निभाने की जिम्‍मेदारी आ गई। एक निजी संस्‍थान से राष्‍ट्रीय कृत संस्‍थान के रूप में बदलाव और स्‍वतंत्रता प्राप्ति के बाद  अर्थव्‍यवस्‍था में इसकी नई भूमिका दुर्जेय थी। रिज़र्व बैंक के साल-दर-साल विकास की राह पर चलते हुए कई कहानियां बनीं, जो समय के साथ इतिहास बनती चली गई।
   1935 में रिज़र्व बैंक की स्‍थापना से पहले केन्‍द्रीय बैंक के मुख्‍य कार्यकलाप प्राथमिक तौर पर भारत सरकार द्वारा संपन्‍न किये जाते थे और कुछ हद तक ये कार्य 1921 में अपनी स्‍थापना के बाद भारतीय इम्‍पीरियल बैंक द्वारा संपन्‍न होते थे। नोट जारी करने का नियमन, विदेशी विनिमय का प्रबंधन एवं राष्‍ट्र की अभिरक्षा और विदेशी विनिमय भंडार जैसे कार्यों की जिम्‍मेदारी भारत सरकार की हुआ करती थी। इम्‍पीरियल बैंक सरकार के बैंक के रूप में काम करता था और व्‍यावसायिक बैंक के रूप अपनी प्राथमिक गतिविधियों के अलावा यह एक सीमित हद तक बैंकों के बैंक के रूप में भी काम करता था। जब रिज़र्व बैंक की स्‍थापना हुई, तब भारत में एक हद तक संस्‍थागत बैंकिंग का विकास हुआ और विदेशी बैंकों को सामान्‍य तौर पर विनिमय बैंक के रूप में पहचान मिली।
    1941 में कराची में रिज़र्व बैंक का कार्यालय मुख्य तौर पर नकदी कार्यालय था, जहां लगभग 75 लोग काम करते थे। अविभाजित भारत में उस समय कानूनी निविदाओं के तहत मुद्राएं क्षेत्रवार छपती थीं, जो मुख्‍यत: 100 और 1000 रुपये के नोट के रूप में होती थीं। तब नोटों पर इन्‍हें जारी करने के क्षेत्रों के नाम जैसे – मुंबई, कानपुर, कलकत्‍ता, मद्रास, कराची, लाहौर छापे जाते थे। नोट छापने वाले हर क्षेत्र को नोट जारी करने और समय-समय पर इन्‍हें रद्द करने का सदस्‍यवार रिकॉर्ड रखना पड़ता था। यदि कराची क्षेत्र से जारी किये गए नोट कलकत्‍ता में पकड़े गए, तो उन्‍हें कराची लाया जाता था और जारी करने वाले खाते पर इनकी संख्‍या दर्ज कर रद्द कर दिया जाता था। खातों में जारी और रद्द किये गए हर नोट की संख्‍या दर्ज होता थी। यदि किसी नोट की संख्‍या रद्द नोट की संख्‍या से मिलती पाई गई, तो ऐसे मामलों में जांच कराई जाती थी।
    1946 में, जब 1000 रुपये के नोट का विमुद्रीकरण किया गया, तो कुछ लोगों ने प्रति 1000 रुपये के नोट के बदले में 500 से 600 रुपये के नोट लिये। ऐसा विनिमय रिज़र्व बैंक और आयकर विभाग के दफ्तर में कराया गया। बैंक और दूसरे कारपोरेट निकायों ने बड़ी राशि के नोट को छोटी राशि के नोट में बदलवाया। इस तरह बैंकों ने अपने ग्राहकों और परिचितों के नाम नोट विनिमय कर उनकी मदद की। उन दिनों एक रुपये के चांदी के सिक्‍कों की शुद्धता की  जांच रोकडिया सिक्‍के को लकड़ी के टेबल पर तेजी से फेंक कर करता था। वे नकली सिक्‍कों की पहचान इस तरह सिक्‍कों की आवाज सुन कर करते थे। इस तरह हम कह सकते हैं कि रिज़र्व बैंक उस जमाने में एक संगीतप्रेमी था।
  1940 के शुरूआती दशक में रिजर्व बैंक के वरिष्‍ठ अधिकारिक पदों पर मौजूदा कर्मियों को ही पदोन्‍नत कर जिम्‍मेदारी दी जाती थी या इंपीरियल बैंक के अधिकारियों को प्रतिनियुक्ति पर लाया जाता था। अधिकारियों का अंतिम साक्षात्‍कार कलकत्‍ता में निदेशकों के केन्‍द्रीय मंडल में संपन्‍न होता था। देश के विभाजन के बाद कराची में कार्यरत अधिकारियों को 1947 में मुंबई कार्यालय में आने को कहा गया। इस पर कुछ टेलीफोन ऑपरेटर ही मुंबई कार्यालय में योगदान देने आए। उस समय रिज़र्व बैंक में कोई महिला कर्मचारी नहीं थी। 1940 के शुरूआती दशक में लिपिक के पद पर एक महिला की नियुक्ति हुई और एक अधिकारी के रूप में मार्च, 1949 में सुश्री धर्मा वेंकटरमन की बहाली हुई। बैंक में धीरे-धीरे महिला कर्मियों की संख्‍या बढ़ने लगी। एक आंकड़े के अनुसार जनवरी, 1968 में महिलाओं की संख्‍या कुल कर्मचारियों के आठ फीसदी से कम थी।
    इतिहास के पन्‍ने बताते हैं कि रिज़र्व बैंक में इम्‍पीरियल बैंक से आये अधिकारियेां को छोड़ बहुत कम यूरोपीय अधिकारी थे। ऐसा डिप्‍टी गर्वनर नानावटी की कोशिशों की वजह से संभव हो पाया। वे चाहते थे कि अधिकारी बनने का मौका अधिक-से-अधिक भारतीयों को मिले। कर्मचारियों के संदर्भ में नानावटी भारतीयकरण चाहते थे और वे भारत में बनी वस्‍तुओं को खरीदने में तरजीह देते थे। इस संबंध में यह जानना बड़ा रुचिकर है कि बैंक में एक बार भारत में बनी घडियों की खरीदारी का कर्मचारियों ने विरोध किया और काम करना बंद कर दिया। तब नानावटी की टिप्‍पणी थी कि इससे कोई मतलब नहीं है कि बैंक की सभी घडियां इस तरह गतिरोध पैदा कर दें।
    हालांकि यह जानना बड़ा दिलचस्‍प है कि सेक्रेटरी ऑफ स्‍टेट फॉर इंडिया रिज़र्व बैंक को एक संस्थागत रूप देने के लिए कई कारणों से कर्मचारियों को सुकून देने वाली समय सारणी का समर्थन करते थे। प्राथमिक प्रबंधन के लिए आवश्‍यक समय के अलावा बैंक की स्‍थापना के लिए सरकारी बजट में संशोधन और सामान्‍य निर्यात सरप्‍लस की वापसी जैसी कुछ पूर्व शर्तें लागू करने की जरूरत महसूस की गई। ये शर्तें अधिक समय लेने वाली थीं, जिसे पूरा होने में लगने वाला समय कष्‍टदायक था। सेक्रेटरी ऑफ स्‍टेट फॉर इंडिया का मानना था कि रिज़र्व बैंक की स्‍थापना में ज्‍यादा तत्‍परता तब तक उचित नहीं है, जब तक नये वित्‍त सदस्‍य वास्‍तविक स्थिति को व्‍यक्तिगत तौर पर समझे बिना इस मसले पर अपनी राय देने की स्थिति में न आ जायें। उन्‍होंने भारत सरकार के उस सुझाव को निरस्‍त कर दिया, जिसमें बिना मुद्रा नियमन के बैंक की शुरूआत करने की बात कही गई थी। अंत में इस मसले पर ऐसी सहमति बनी, कि बैंक की शुरूआत न तो भारत सरकार की इच्‍छा के अनुरूप बहुत जल्‍दी हुई और न ही देर से, जैसा कि सेक्रेटरी ऑफ स्‍टेट फॉर इंडिया ने अंदाजा लगाया था।
    15 अगस्‍त, 1947 को भारत और ब्रिटेन के बीच एक महत्‍वपूर्ण समझौता  ‘’ब्रिटिश डेट (DEBT) पैक्‍ट विद इंडिया’’ पर समझौता हुआ। ब्रिटेन और भारत की सरकार ने उस वक्‍त भारत के स्‍टर्लिंग संतुलन के संबंध में 1947 तक की अवधि के लिए अंतरिम समझौते पर हस्‍ताक्षर किये। दोनों देशों के अधिकारियों की बैठक में दोनों देशों के बीच आर्थिक और वित्‍तीय समस्याओं की समीक्षा की गई और भारत की संभावित आवश्यकताओं पर विचार किया गया। बैठक में इस बात पर सहमति बनी कि खर्च के लिए भारत की मौजूदा बचत में 35 मिलियन पॉउंड उपलब्‍ध होना चाहिए, जिसकी व्‍यवस्‍था 31 दिसम्‍बर, 1947 तक होनी चाहिए। इसके अलावा 30 मिलियन पॉउंड की कार्यकारी बचत रिज़र्व बैंक के अधिकार क्षेत्र में होगी। दोनों सरकारों ने खासतौर से इस बात पर भी सहमति जताई कि ब्रिटिश मूल के उन लोगों की बचत राशि पर कोई सरकार किसी तरह का प्रतिबंध नहीं लगाएगी, जो स्‍थायी तौर पर ब्रिटन वापस जाने वाले हैं। ब्रिटेन में रह रहे लोगों की निवेश राशि पर भी किसी तरह के प्रतिबंध से मना किया गया।
   रिज़र्व बैंक आज एक ऐसे संस्‍थान के रूप में काम कर रहा है, जो मौद्रिक स्‍थायित्‍व, मौद्रिक प्रबंधन, विदेशी विनिमय, आरक्षित निधि प्रबंधन, सरकारी कर्ज प्रबंधन, वित्‍तीय नियमन एवं निगरानी सुनिश्चित करने के उद्देश्‍य के साथ काम करता है। इसके मुख्‍य दायित्‍वों में मुद्रा प्रबंधन और भारत के हक में इसकी साख व्‍यवस्‍था का संचालन भी शामिल है। इसके अलावा अपनी स्‍थापना की शुरूआत से ही रिज़र्व बैंक ने विकास की दिशा में सक्रिय भूमिका निभाई है, खासकर कृषि और ग्रामीण क्षेत्रों में। रिज़र्व बैंक के इतिहास के पन्‍नों से ये कुछ ऐसी झलकियां थी, जिसे हम बैंकों के इस बैंक की लंबी और महत्‍वपूर्ण यात्रा से निकाल कर पेश कर पाए हैं। 
08-फरवरी-2012 20:56 IST

*इस फीचर के लेखक स्‍वतंत्र पत्रकार है और इसमें उद्धृत विचार उनके अपने हैं, तथा इसमें पीआईबी का विचार निहित नहीं है।